Tuesday, March 1, 2016

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शनीची दहा नावे

कोणस्थः पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।
सौरिः शनैश्‍चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः ॥
अर्थ :शनि स्तोत्र पाठ कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अंतक, यम, सौरि, शनैश्‍चर आणि मंद या दहा नावांनी पिप्पलाद ऋषींनी शनीची स्तुती केली आहे. शनि मृत्युंजय स्तोत्र 

शनीचे स्तोत्र

पिप्पलाद उवाच ।
नमस्ते कोणसंस्थाय पिङ्गलाय नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते बभ्रुरूपाय कृष्णाय च नमोऽस्तु ते ?॥ १ ॥
अर्थ : पिप्पलाद ऋषी म्हणाले, कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, आणि कृष्ण या नावांनी ओळखल्या जाणार्‍या शनिदेवाला माझा नमस्कार असो.
नमस्ते रौद्रदेहाय नमस्ते चान्तकाय च ।
नमस्ते यमसंज्ञाय नमस्ते सौरये विभो ?॥ २ ॥
अर्थ : रौद्र, अंतक, यम आणि सौरि ही नावे असलेल्या शनिदेवाला माझा नमस्कार असो.
नमस्ते मन्दसंज्ञाय शनैश्‍चर नमोऽस्तु ते ।
प्रसादं कुरु देवेश दीनस्य प्रणतस्य च ॥ ३ ॥
अर्थ : मंद आणि शनैश्‍चर ही नावे धारण केलेल्या शनिदेवाला माझा नमस्कार असो. हे देवाधिदेवा, या शरणागत दीनावर तू प्रसन्न हो. दशरथ कृत शनि स्तोत्र पाठ
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दशरथ कृत शनि स्तोत्र in hindi



अस्य श्री शनैश्चरस्तोत्रं दशरथः ऋषि शनैश्चरो देवता ।
त्रिष्टुप्‌ छंद। शनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥ 

दशरथ उवा


कोणोऽन्तकारौद्रयमोऽख बभ्रुःकृष्णः शनि पिंगलमन्दसौरि ।
नित्य स्मृतो यो हरते पीड़ां तस्मै नमः श्रीरविनन्दाय ॥ 1 ॥
सुरासुराः किंपु-रुषोरगेन्द्रा गन्धर्वाद्याधरपन्नगाश्च
पीड्य सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः ॥ 2 ॥
नराः नरेन्द्राः पुष्पत्तनानि पीड्यन्ति
सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः ॥ 3 ॥
तिलेयवैर्माषुगृडान्दनैर्लोहेन नीलाम्बर-दानतो
वा प्रीणाति मन्त्रैर्निजिवासरे च तस्मै नमः ॥ 4 ॥
प्रयाग कूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्यजले गुहायाम्‌ ।
यो योगिनां ध्यागतोऽपि सूक्ष्मस्तस्मै ॥ 5 ॥
अन्यप्रदेशात्स्वः गृहंप्रविष्टदीयवारेसनरः सुखी ॥ 6 ॥
स्यात्‌ गहाद्गतो यो न पुनः प्रयतितस्मैनभ खष्टा
स्वयं भूवत्रयस्य त्रोता हशो दुःखोत्तर हस्ते पिनाकी एक स्त्रिधऋज्ञ जुःसामभूतिंतस्मै ॥ 7 ॥
शन्यष्टक यः प्रठितः प्रभाते, नित्यं सुपुत्रः पशुवान्यश्च ॥ 8 ॥
पठेतु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोतिनिर्वाण पदं तदन्ते ॥ 9 ॥
कोणस्थः पिंगलो बभ्रूः कृष्णोरौद्रान्तको यमः ॥ 10 ॥
सौरिः शनैश्चरोमन्दः पिपलादेन संस्तुतः ॥ 11 ॥
एतानि दशनामानि प्रतारुत्थाय यः पठेत्‌ ॥ 12 ॥


 शनि स्तोत्र / शनैश्चर स्तोत्र से करे अपनी परेशानियों का हल | Shani Stotra प्राचीन काल में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवती राजा हुए थे। राजा के कार्य से राज्य की प्रजा सुखी जीवन यापन कर रही थी सर्वत्र सुख और शांति का माहौल था। उनके राज्यकाल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका नक्षत्र के अन्तिम चरण में देखकर कहा कि अब यह शनि रोहिणी नक्षत्र का भेदन कर जायेगा। जिसे ‘रोहिणी-शकट-भेदन’भी कहा जाता हैं। शनि का रोहणी में जाना देवता और असुर दोनों ही के लिये कष्टकारी और भय प्रदान करनेवाला है तथा ‘रोहिणी-शकट-भेदन से बारह वर्ष तक अत्यंत दुःखदायी अकाल पड़ता है।



 
ज्योतिषियों की यह बात जब राजा ने सुनी, तथा इस बात से अपने प्रजा की व्याकुलता देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे- ‘हे ब्राह्मणों ! इस समस्या का कोई समाधान शीघ्र ही मुझे बताइए।’

इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे- ‘शनि के रोहिणी नक्षत्र में में भेदन होने से प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें। इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादिक देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं।

वशिष्ठ जी के वचन सुनकर राजा सोचने लगे कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा। अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से युक्त होकर अपने रथ को तेज गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी 3 लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए। मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया। श्वेत अश्वो से युक्त और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित मुकुट में जड़े हुए बहुमुल्य रत्नों से प्रकाशमान राजा दशरथ उस समय आकाश में दूसरे सूर्य की तरह चमक रहे थे। शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए।


 
अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गए और हंसते हुए राजा से कहने लगे —

शनि उवाच-
पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न कस्यचित्।

देवासुरामनुष्याशऽच सिद्ध-विद्याधरोरगाः।।

मयाविलोकिताः सर्वेभयं गच्छन्ति तत्क्षणात्।

तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! तपसापौरुषेण च।।

वरं ब्रूहि प्रदास्यामि स्वेच्छया रघुनन्दनः!

शनि बोलने लगे –

‘हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं। हे राजेंद्र ! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः हे रघुनन्दन ! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मांग लो, मैं तुम्हें दूंगा।।

दशरथ उवाच —
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः।।

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।

सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।।

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।

एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्।।

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।

पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत! ।।

दशरथ ने कहा —
हे सूर्य-पुत्र शनि-देव! शनी स्तोत्र मराठी  यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मैं एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप “रोहिणी शकट भेदन” कदापि न करें। मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है।’

ऐसा वर माँगने पर शनि ने ‘एवमस्तु’कहकर वर दे दिया। शनि स्तोत्र संस्कृत इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा अपने को धन्य समझने लगा।


 
शनि देव बोले – ‘मैं तुमसे बहुत ही प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो।।तब राजा दशरथ जी प्रसन्न होकर शनि से दूसरा वर मांगा।

शनि कहने लगे- ‘हे दशरथ तुम निर्भय रहो । 12वर्ष तक तुम्हारे राज्य में कोई भी अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि देव की स्तुति इस प्रकार करने लगे।

दशरथकृत शनि स्तोत्र

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।

नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।1

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।। 2

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।

नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।। 3

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।

नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।। 4

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।। 5

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।

नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।। 6

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।। 7

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।

तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।। 8

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।

त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।। 9

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।

एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।10

हिंदी सरलार्थ

जिनके शरीर का रंग भगवान् शंकर के समान कृष्ण तथा नीला है उन शनि देव को मेरा नमस्कार है। इस जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप शनैश्चर को पुनः पुनः नमस्कार है।।

जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट तथा भयानक आकार वाले शनि देव को नमस्कार है।।


 
जिनके शरीर दीर्घ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु जर्जर शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार नमस्कार है।।

हे शनि देव ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप  रौद्र,  भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।

सूर्यनन्दन, भास्कर-पुत्र, अभय देने वाले देवता, वलीमूख आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, ऐसे शनिदेव को प्रणाम है।।

आपकी दृष्टि अधोमुखी है आप संवर्तक, मन्दगति से चलने वाले तथा जिसका प्रतीक तलवार के समान है, ऐसे शनिदेव को पुनः-पुनः नमस्कार है।।

आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सर्वदा सर्वदा नमस्कार है।।

जसके नेत्र ही ज्ञान है, काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण क्षीण लेते हैं वैसे शनिदेव को नमस्कार ।।

देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते ऐसे शनिदेव को प्रणाम। ।।

आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।। राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले-

‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं भी अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।

दशरथ उवाच-
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।

अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।।

अर्थात  ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।

शनि देव ने कहा-
हे राजन् ! वैसे इस प्रकार का वरदान मैं किसी को नहीं देता हूँ, परन्तु सन्तुष्ट होने के कारण रघुनन्दन मैं तुम्हे दे रहा हूँ।

हे दशरथ ! तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो भी मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि के कारण कोई बाधा नहीं होगी। जिनके महादशा या अन्तर्दशा में, गोचर में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।

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